16 दिसंबर को राजधानी में हुए चर्चित 'निर्भया बलात्कार' मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ सज़ा-ए-मौत की ज़रूरत पर बहस फिर उठ खड़ी हुई है.
मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रपट के मुताबिक, 2016 में मौत की सज़ा के मामले दुनिया भर में 37 फीसदी घट गए.
पिछले साल कम से कम 1032 लोगों को फांसी दी गई, जबकि 2015 में यह संख्या 1634 थी.
भारत उन चुनिंदा देशों में है, जहां अब भी सज़ा-ए-मौत दी जाती है. इसके पक्ष और विरोध में आवाज़ें उठती रही हैं.
इस संबंध में बीबीसी हिंदी ने आईसीएसएसआर में प्रोफेसर मधु किश्वर और वरिष्ठ वकील युग मोहित चौधरी से बात की.
मधु गंभीर अपराधों, ख़ास तौर से आतंकवाद के मामलों में फांसी की सज़ा के पक्ष में हैं, लेकिन युग इसे लोकतंत्र में ग़ैरज़रूरी मानते हैं.
GETTY IMAGESक्या जेलों में बंद आतंकवादी ज़्यादा ख़तरनाक हैं?
मधु किश्वर कहती हैं कि वह पहले मौत की सज़ा के पक्ष में नहीं थीं, लेकिन ऐसे मामलों में जहां कोई अपराध के लिए प्रतिबद्ध है और उसका मकसद ही अधिकतम हत्याएं करना है, वहां कोई और विकल्प नहीं है.
उनके मुताबिक, 'अगर अपराध आपकी विचारधारा है, आप लोगों को मारने के लिए ही जीते हैं तो फांसी ही होनी चाहिए. उन्हें जेलों में रखना मुसीबत है, क्योंकि वे ब्लैकमेल का साधन बन जाते हैं और इससे दूसरे अपराध पनपते हैं.'


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